पर्यावरण प्रदुषण पर निबंध | प्रदूषण की समस्या पर निबंध
संकेत बिन्दु
भूमिका, प्रदूषण के प्रकार और कारण, श्रदूषण से होने वाली हानियां, प्रदूषण को रोकने के उपाय, उपसंहार।।
भूमिका
प्रदूषण का अर्थ है-वायुमण्डल या वातावरण का दूषित होना। पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के लिए सन्तुलित वातावरण की आवश्यकता है, जिसमें हर तत्त्व एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। यदि इनमें से किसी में ज़रा-सा भी असन्तुलन हो जाए, तो वातावरण विषैला हो जाता है। यही प्रदूषण है।
प्रदूषण के प्रकार और कारण:-
जनसंख्या और उद्योगों के बढ़ने के साथ-साथ प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। प्रदूषण तीन प्रकार का होता है-जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण। जल प्रदूषण मुख्यत: नदियों, समुद्रों तथा अन्य जलाशयों में उद्योगों और शहरों की अन्य गन्दी नालियों के दूषित जल के मिलने से होता है। उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में रसायनों की अधिकता कई गम्भीर बीमारियों को जन्म देती हैं।
वायु प्रदूषण उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले ज़हरीले धुएँ तथा सड़कों पर चलने वाले वाहनों से निकलने वाले दृषित धुएँ के कारण होता है। विकास की अन्धी दौड़ के कारण वनों की बेरहमी से कटाई भी वायु प्रदूषण को बढ़ाने में सहायता कर रही है। ध्वनि प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले शोर, घरों तथा सार्वजनिक स्थलों में बजने वाले टेपरिकॉर्डर आदि की आवाज़ों से होता है। इसके कारण बहरेपन की समस्या उत्पन्न हो रही है।
प्रदूषण से होने वाली हानियाँ:-
प्रदूषण की समस्या के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार जनसंख्या वृद्धि है। इस जनवृद्धि के कारण ही ग्रामों, नगरों तथा महानगरों को विस्तार देने की आवश्यकता अनुभव हो रही है परिणामस्वरूप जंगल काटकर वहाँ बस्तियाँ बसाई जा रही है। वृक्षों और वनस्पतियों की कमी के कारण प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में असन्तुलन पैदा हो गया है। प्रकृति जो जीवनोपयोगी सामग्री जुटाती है, उसकी उपेक्षा हो रही है। प्रकृति का स्वस्थ वातावरण दोषपूर्ण हो गया है। यही पर्यावरण की सबसे बड़ी समस्या है।
कारखानों की अधिकता के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा है साथ ही वाहनों तथा मशीनों से उत्पन्न होने वाला शोर ध्वनि प्रदूषण को जन्म देता है, जिससे मानसिक तनाव व श्रवण दोष तथा कान के अन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं। इस शोर-गुल के कारण मनुष्य अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है।
जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ अपना तालमेल व सन्तुलन स्थापित नहीं करता, तब तक उसकी औद्योगिक प्रगति व्यर्थ है। इस प्रगति को नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता है।
हमें चाहिए कि मशीनें हम पर शासन न कर बैठे, बल्कि हम उन पर शासन करें। हम ऐसे औद्योगिक विकास से विमुख रहें, जो हमारे सहज जीवन में बाधा डालते हों। हम वनों, पर्वतों, जलाशयों और नदियों के वरदान से वंचित न हों। नगरों के साथ-साथ ग्राम भी सम्पन्न बने रहें, क्योकि अनेक आयाम ऐसे हैं कि नगरों की आवश्यकताएँ ग्रामों पर ही निर्भर है। नगर संस्कृति के साथ-साथ ग्रामीण संस्कृति का भी विकास होना आवश्यक है।
प्रदूषण को रोकने के उपाय:-
समय रहते ही प्रदूषण से बचने के उपाय कर लिए जाने चाहिए, जिससे आने वाली पीढ़ियों को इसके खतरों से बचाया जा सके। इसके लिए जनसंख्या को नियन्त्रित करना होगा। कारखानों के कचरे को नदियों में बहने से रोकना होगा।
पेट्रोल में मिलाए जाने वाले सीसा की मात्रा कम करनी होगी। वृक्षारोपण पर ज़ोर देना होगा।
ऊर्जा के गैर-पारम्परिक स्त्रोतों की खोज करनी पडेगी। अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों, वाहनों आदि पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ेगा। यद्यपि प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता तो समाप्त नहीं की जा सकती, किन्तु प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि इसका प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर न पड़ने पाए, इसके लिए हमें उद्योगों की संख्या के अनुपात में बड़ी संख्या में पेड़ों को लगाने की आवश्यकता है।
इसके अलावा पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए हमें जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने की भी आवश्यकता है, क्योंकि जनसंख्या में वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से जीवन के लिए अधिक प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास में उद्योगों की स्थापना होती है और उद्योग कहीं-न-कहीं प्रदूषण का कारण बनते हैं।
यदि हम चाहते हैं कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ सन्तुलित विकास भी हो तो इसके लिए हमें नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा तब ही सम्भव है, जब हम उनका उपयुक्त प्रयोग करें।
उपसंहार
यद्यपि सरकारी स्तर पर पर्यावरण को सही रखने तथा प्रदूषण को रोकने के कई उपाय किए गए हैं, लेकिन प्रदूषण तब तक नहीं रुक सकेगा, जब तक यह जन-जन का आन्दोलन न बन जाए। वस्तुत: पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है, जिससे निपटना वैश्विक स्तर पर ही सम्भव है, किन्तु इसके लिए प्रयास स्थानीय स्तर पर भी किए जाने चाहिए।
विकास एवं पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु एक-दूसरे के सन्तुलित एवं शुद्ध पर्यावरण के बिना मानव का जीवन कष्टमय हो जाएगा। हमारा अस्तित्व एवं जीवन की गुणवत्ता एक स्वस्थ प्राकृतिक पर्यावरण पर निर्भर है। विकास हमारे लिए आवश्यक है और इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी आवश्यक है, किन्तु ऐसा करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे पर्यावरण को किसी प्रकार का पूरक हैं।
नुकसान न हो।
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